अंतराष्ट्रीय कुल्लु का दशहरा
कुल्लू का दशहरा पर्व परंपरा, रीतिरिवाज और ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत महत्व रखता है। हिमाचल प्रदेश में कुल्लू का दशहरा सबसे अलग और अनोखे अंदाज में मनाया जाता है। यहां इस त्यौहार को दशमी कहते हैं और दस आश्विन मास को इसकी शुरुआत होती है। जब पूरे भारत में विजयादशमी की समाप्ति होती है उस दिन से कुल्लू की घाटी में इस उत्सव का रंग और भी अधिक बढ़ने लगता है। कुल्लु का दशहरा आज अंतराष्ट्रीय पहचान बना चुका है। इस दशहरे की परम्परा से पता चलता है कि यहां के राजा ऐसे भी हुए जिन्होंने अपनी गद्दी को ही भगवान को समर्पित कर दिया। स्वयं सेवक या छड़ीबरदार बनकर उनकी सेवा में तत्पर हो गये। यह उत्सव प्राचीन परम्परा और नये सामाजिक बदलावों की समाविष्ट संस्कृति का निदर्शन करवाता है। यह प्राचीन संस्कृति पर आधारित है जिसकी वर्तमान जीवन में अपनी प्रासंगिकता है।
रघुनाथ का कुल्लू आगमन का इतिहास और दशहरा परम्परा
कुल्लू में रघुनाथ जी का मंदिर राजा जगतसिंह के शासनकाल की देन है जिनका शासनकाल का समय 1637-62 ई. का है। 1637 ई. में उन्होंने कुल्लू की राजगद्दी को संभाला। एक बार इनके राज्य के एक गांव टिपरी के रहने वाले ब्राह्मण परिवार ने अपने रिश्तेदार ब्राह्मण दुर्गादत की झूठी शिकायत कर दी। शिकायत में दावा किया गया कि ब्राह्मण के पास एक पत्था यानि लगभग एक किलोग्राम सुच्चे मोती हैं। राजा शिकायतकर्ता की बातों में आ गये। बाद में ब्राह्मण ने परिवार सहित आत्मदाह कर दिया था। राजा को अपने किये पर भारी पश्चाताप हुआ। इसके बाद राजा को गंभीर बीमारी हो गयी जिसके कारण वह वैष्णव सम्प्रदाय के सिद्ध महात्मा कृष्णदास पयहारी की शरण में चले गये। महात्मा जी ने उनके रोग का निवारण करके उनको नृसिंह भगवान की मूर्ति प्रदान की। राजा ने अपनी गद्दी पर भगवान नृसिंह को स्थापित किया और स्वयं एक छड़ीबदार के रूप में सेवा करने लगे। राजा को महात्मा ने अवध यानि आज की अयोध्या से त्रेतानाथ मंदिर से श्रीरामचन्द्र तथा सीताजी मूर्तियां लाने को कहा। इन मूर्तियों की विशेषता यह थी कि इन मूर्तियों को श्रीरामचंद्र जी ने स्वयं अश्वमेध यज्ञ के लिए बनवाया था। ये आत्मा के आकार यानि अगुंष्ठ मात्र भारतीय शास्त्रीय प्रमाण की हैं। अयोध्या से मूर्तियों को लाने का काम वैष्णव संत के शिष्य पण्डित दामोदर दास गोसांई को दिया गया। दामोदर दास के बारे में बताया जाता है कि उसके पास एक विशेष सिद्धि थी जिसके द्वारा वह मुंह में कुछ पदार्थ रखकर अदृश्य हो गया और अयोध्या में प्रकट हो गया। वहां वह त्रेतानाथ मंदिर के एक पुजारी का शिष्य बन गया। दामोदर दास ने वहां से मूर्तियों को उठाया और हरिद्वार तक पहुंचा दिया। वहां के पुजारी जोधावर को गुजारे की रकम भिजवाने के बाद दामोदर दास मूर्तियां लेकर कुल्लु की ओर चल पड़ा। इसके बाद राजा ने दामोदर दास का खूब स्वागत किया और अपने सिंहासन पर स्थित नृसिंह भगवान के साथ ही मूर्तियों को स्थापित कर दिया। इस अवसर पर राजा ने बड़े उत्सव का आयोजन किया। राजा को कुष्ठ की बीमारी थी लेकिन प्रतिदिन की पूजा को देखने और चरणामृत के सेवन से राजा रोगमुक्त हो गया। राजा ने अपनी सारी जागीर रघुनाथ जी को अर्पण कर दी और स्वयं सेवक बन गया। मूर्तियां लाने वाले पण्डित दामोदार दास को राजा ने भूईंण यानि भून्तर में मंदिर बनवा दिया तथा चैरासी खार अनाज की पैदावार वाली जमीन मुआफी के रूप में प्रदान कर दी। आज भी इस वंश के पण्डित सालीग्राम गोसांई के घर में यह प्राचीन मंदिर मौजूद है। राजा रघुनाथ के लिए एक टका और एक रूपया प्रतिदिन भेंट करता था। राजा की ओर से 500 की राशि प्रतिवर्ष अयोध्या के त्रेतानाथ मंदिर में पहुंचा दी जाती थी। राजा ने त्रेतानाथ के पुजारी और उसके परिवार को बुलाकर कुल्लु बुलाया और जमीन की मुआफी का ताम्रपत्र प्रदान किया वैष्णव धर्म के पोषक महात्मा कृष्णदास पयहारी सन्त ने राजा को अपना भक्त बना दिया। उस समय यहां नाथों का बहुत प्रभाव था। लेकिन महात्मा ने घाटी में वैष्णव धर्म का प्रचार किया। इसी समय से ही रघुनाथ जी कुल्लु के प्रधान देवता के रूप में प्रतिष्ठित हुए। मूर्तियों के चमत्कार को देखकर कुल्लु के सभी 365 देवी-देवता श्री रघुनाथ जी के दर्शनों को आये। जो आजतक परम्परा का अटूट हिस्सा बना हुआ है।
कुल्लु का दशहरा मनाने की परम्परा है इन 6 स्थानों में
कुल्लु के दशहरे की इन 6 स्थानों में मनाने की परम्परा है 1 मकड़ाहर 2 हरिपुर 3 मणिकर्ण 4 ठाउआ 5 वशिष्ठ और 6 कुल्लू ढालपुर। इन मंदिरों में क?मकड़ाहर का मंदिर टूट गया है इसलिए यहां पर दशहरा बंद हो गया है। ठाउआ में एक दिन का दशहरा उत्सव रह गया है। यहां पर मुरलीधर का मंदिर स्थापित है आश्विन शुक्ल दशमी को सुबह शस्त्र और घोड़ पूजन होता है। इस दिन मंदिर में शालग्राम, हनुमान और गरूढ़ की मूर्तियों रथ की चैकियों में आरूढ़ कर रथ के मोटे-मोटे रस्सों को खींच कर मंदिर की ड्योढ़ी तक लाते हैं। मूर्तियों को रथ से उतार कर मंदिर में लाने के साथ ही दशहरे का समापन हो जाता है। मणिकर्ण में राम और सीताजी की प्रतिष्ठित मूर्तियां बनाकर श्रृंगार करके रथ पर आरूढ़ किया जाता है। जलूस के साथ पार्वती नदी के उंचे स्थान पर पहुंचकर नदी के बांयें किनारे पर छोटे घड़े को रखा जाता है। दूर रखे घड़े को पत्थर से तोड़ने की कोशिश की जाती है। जैसे ही घड़ा टूट जाता है लोग