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कुल्लू, हिमशिखा न्यूज़

उत्तराखंड में आए हिमनद और हिमालय में आ रहे भूकंप भविष्य के लिए चिंता का विषय है। हिमालय में विकास के नाम पर जरुरत से ज्यादा हो रहीं गतिविधियां इसके लिए जिम्मेदार हैं। इससे हिमालयन क्षेत्रों में पर्यावरण संतुलन बिगड़ रहा है। यह बात लाहौल-स्पीति से संबंध रखने वाले जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय दिल्ली में भूगोल शास्त्री डॉ. मिलाप शर्मा ने कही है। डॉ. शर्मा ने कहा कि हिमालय क्षेत्रों में बादल फटना और उत्तराखंड में आए हिमनद से त्रासदी इसका बड़ा उदाहरण है। हिमालय क्षेत्रों में विकास के नाम पर लगाए जा रहे बिजली प्रोजेक्ट, अंधाधुंध निर्माण और जंगलों में कटान के चलते बड़े स्तर पर ग्लोबल वार्मिंग के लिए जिम्मेदार हैं। पहाड़ी इलाकों में विकास के नाम पर पर्यावरण की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। डॉ. शर्मा ने कहा कि हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में बड़े-बड़े होटल और बहुमंजिला भवन बनाए जा रहे हैं जो हिमालय में सुरक्षित नहीं है। हिमालय का यह क्षेत्र भूकंप जोन में आता है। एडवेंचर टूरिज्म के नाम पर चोटियों पर सैलानियों को ले जाया जा रहा है, जहां सैकड़ों वर्ष पुराने ग्लेश्यिर हैं। इससे ग्लोबल वार्मिंग से तापमान में वृद्धि दर्ज हो रही है और ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। डॉ. शर्मा लंबे समय से हिमालय में पर्यावरण, ग्लोबल वार्मिंग और ग्लेश्यिरों पर शोध कर रहे हैं। वर्तमान में भी वह हिमाचल के कुल्लू मनाली, लाहौल-स्पीति और उत्तराखंड में ग्लोबल वार्मिंग, ग्लेश्यिरों और पर्यावरण पर शोध कर रहे हैं। डॉ. शर्मा ने सुझाव देते हुए कहा कि समूचा हिमालय क्षेत्र भूकंप जोन में है। ऐसे में नदी-नालों के किनारे होटल, घर और परियोजनाओं के निर्माण को इजाजत नहीं देनी चाहिए। डीजल और पेट्रोल वाहनों पर रोक लगानी चाहिए और यह इनकी संख्या निर्धारित करनी चाहिए। डॉ. मिलाप शर्मा ने कहा कि उत्तराखंड में जो त्रासदी हुई, उसे हिमनद कहा जाता है। 50 या 100 वर्षों के बाद ऐसी घटनाएं घटती हैं। 1855 से ग्लोबल वार्मिंग का दौर जारी है और इस प्रकार से हिमनद और बादल फटने जैसी घटनाएं घटी हैं। लाहौल में उन्होंने 1971-72 में हिमनद देखा था जिसे लाहौल वासी ‘बैंडा’ कहते हैं। ग्लेशियर टूटने से ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे नदी-नालों में उबलता हुआ पानी आ रहा है। हिमनद तेज ध्वनि के साथ आता है।

By HIMSHIKHA NEWS

हिमशिखा न्यूज़  सच्च के साथ 

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